अरुण देव :

खिलौना:

धरती  पर  उसके  आगमन की अनुगूँज  थी
व्यस्क संसार में बच्चे की आहट से
उठ बैठा कब का सोया बच्चा
और अब वहाँ एक गेंद थी
एक ऊँट थोडा सा उट - प- टांग
बाघ भी  अपने  अरूप पर  मुस्कराए  बिना न  रह सका 

पहले 
खिलौना की खुशी  में
धरती गेंद की तरह हल्की होकर लद गयी
हडप्पा और मोहनजोदड़ो से मिले मिट्टी की गाड़ी   पर

जिसे तब से खीचे ले जा रहा है वह शिशु . 



सिसिफस:

धूप उठी
और उठ कर बैठ गयी
नीद मेरी सोई पड़ी रही 

उस पर भार था एक पत्थर का
जिसे ले चढता उतरता था मैं रोज

मेरी नीद से
न जाने कहाँ चले गये महकती रातरानिओं के वे फूल
जिनसे बिधा रहता था मेरा दिन
कोई पुकार बजती रहती थी मेरे कानो को
जल के हिलते विस्तार से तारों की टिमटिमाती हुई

मेरी नीद पर खटखट नहीं करता अब
ओंस से भीगा वह हरा पत्ता
जो अभी भी अंतिम आकर्षण है
इस सृष्टि का
और सृष्टि किसी शेष नाग पर नहीं
इसी की नोंक पर टिकी है

मेरी नीद के जगने से पहले
उठ बैठती थी चिडिओं की चहचहाहट
नदी से लौटी हवा के गीले केश
बिखरे रहते थे मेरे गालों पर  

निरर्थक दिनचर्या की जंजीरों में जकड़ा
न जाने किस दलदल में
घिर गया हूँ मैं

एक ही रास्ते से आते-जाते
जैसे सारे रास्ते बंद हो गये हों

कौन बधिक है यह
जिसके जाल में फंस गया है मेरा दिन
और जिसके जंजाल में उलझ पड़ी हैं मेरी रातें. 


 




मित्रता:

देह पर एक जैसी शर्ट
एक उसके पास

चाहे उड़ जाए रंग
घिसकर कमजोर पड़ जाए धागा
फट जाए जेब
और दिखे कपड़े के पीछे का बदरंग चेहरा
पर जिद कि आत्मा की उसी रौशनी में झिलमिलाए मन

बढ़ा कर छू लें  
नदियोँ.पहाड़ों और रेगिस्तानों के पार
उसके जीवन के वे हिस्से
जिसमें सघनता से रहते हैं दो प्राण

ईर्ष्या मोह में डूबे दो अलग संसार को
जोड़ने वाला
हिलता हुआ यह पुल.


हँसी के लिए प्रार्थना :

जीवन के जंगल,रेत, पहाड़  में
कलकल सुने हम हँसी की नदी  का

हँसी की चमक में
धुल जाए मन का कसैलापन
हो जाए आत्मा उज्ज्वल

यह हँसी निर्बल,निर्धन,निरीह पर न गिरे
न इसके छीटें छीटाकशी करें जो रह गये हैं पीछें
थक कर बैठा गए हैं कभी पथ   में
उतर गए हैं कहीं अपने में ही नीचे

बह जाए रोजाना  के कीच, कपट,कपाट

निर्बंध,निर्द्वन्द्व,निष्कलुष यह हँसी
जोडें नदी के निर्जन द्वीपों को
सरस,सहज,सहयोगी बनें हम

स्वाद हो ऐसा इस हँसी का
जो भूखे, दूखों को भी रुचे 


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5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (06-09-2014) को "एक दिन शिक्षक होने का अहसास" (चर्चा मंच 1728) पर भी होगी।
    --
    सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन को नमन करते हुए,
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को शिक्षक दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जीवन की सबसे कमज़ोर कड़ियों की सुध लेती हैं ये कविताएँ ..."स्वाद हो ऐसा इस हँसी का जो भूखे, दूखों को भी रुचे", जिन्हें पढने के बाद सारी मिट्टी झर जाये और आत्मा की सतह पर सैंकड़ों सूर्य जगमगाने लगें और धरती एक गेंद बनकर शामिल हो जाये खुशियों में. विनम्रता और करुणा से ओतप्रोत इन कविताओं कप पढ़कर मन भीग जाता है. बहुत बहुत धन्यवाद अपर्णा जी इन्हें पढने का अवसर देने के लिए.

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  3. Sarita Sharma सिसिफस बहुत सुन्दर कविता है अपर्णा.सिसिफस हम सबमें जिन्दा है जिसे कोल्हू का बैल या जहाज का पंछी कह सकते हैं. सेवानिवृति की कगार पर सोचती हूँ 25 साल की दिनचर्या में क्या खोया, क्या पाया. जिन्दगी का बोझ उठाते हुए हम कहीं पहुंचना चाहते हैं. अंततः गोल दायरे में खुद को घूमते हुए पाते हैं.

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  4. Veena Bundela बेहतरीन कवितायेँ है.. स्मृति में देर तक रहने वाली गूंज जैसी..

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